Sunday, January 13, 2013

Gulzar - BLF - Untitled

(At 2012 Bangalore Literature Festival, Gulzar on the topic of mountains recited a poem. I can not find it either in Selected or Nelgected poems. But i had an audio recording, based on which it is copied below. To me, this was the best poem that he read during those two days.)

 

पिछली बार भी आया था
तो  इसी  पहाड़ ने
नीचे खड़ा था
मुझसे कहा था
तुम लोगों के कद क्यूँ छोटे होते हैं ?

आओ हाथ पकड़ लो मेरा
पसलियों पर पांव  रखो  ऊपर आ जाओ
आओ ठीक से चेहरा तो देखूं 
तुम कैसे लगते हो
जैसे मेरे चींटियों  को तुम अलग अलग पहचान  नहीं सकते
मुझको भी तुम एक ही जैसे लगते हो सब 
एक ही फर्क है
मेरी कोई चींटी जो बदन पर चढ़ जाए
तो चुटकी से पकड़ के फेक उसको मार दिया करते हो तुम
मैं ऐसा नहीं करता

मेरे सरोवर  देखो,
कितने उचें उचें कद हैं इनके
तुमसे सात गुना तो होंगे
शायद दस या बारह गुना हो
उम्रे देखो उसकी तुम, 
कितनी बढ़ी हैं, सदियों जिंदा रहते  हैं
कह देते हो कहने को
लेकिन अपने बड़ों की इज्ज़त करते नहीं तुम
इसीलिए  तुम लोगों के कद
शायद छोटे रह जाते हैं

इतना अकेला नहीं हूँ मैं
तुम जितना समझते हो
तुम ही लोग ही भीड़ में रहकर भी 
तनहा तनहा लगते हो
भरे हुए जब काफिले बादलों के जाते हैं
झप्पा  डाल के मिल कर जाते हैं मुझसे 
दरिया भी उतरते  हैं तो पांव  छू  के विदा होते हैं
मौसम मेहमान है आते हैं तो महीनों रह कर  जाते हैं
अज़ल अज़ल के रिश्ते निभाते हैं

तुम लोगों की  उम्रें देखता हूँ
कितनी छोटी छोटी मायादों  में मि
लते और बिछड़ते हो
ख्वाबें और उम्मीदें भी
बस छोटी छोटी उम्रों जितनी
इसीलिए क्या
तुम लोगों के कद  इतने छोटे रह जाते हैं  

2 comments:

Sandip said...

beautiful.. love to have the audio clip, if you still have....

Sandip Kotecha
Surat
kotechas@gmail.com

Kabir said...

Thank you so much for written version of this beautiful poem.